रिपोर्ट :- अनुपम भट्टाचार्य
वाराणसी। हम सब परमात्मा की संतान हैं। इसी भाव को अनेक संतों ने अलग-अलग समय और स्थानों पर अपनी भाषा और शैली में ‘समस्त संसार, एक परिवार’ के सन्देश के रूप में व्यक्त किया। विगत लगभग 95 वर्षों से संत निरंकारी मिशन भी इसी सन्देश को न केवल प्रेषित कर रहा है, बल्कि अनेक सत्संग और समागम का नियमित रूप से आयोजित कर, इस सन्देश का जीवंत उदाहरण भी पेश कर रहा है।
मिशन के लाखों भक्त इस वर्ष भी 16, 17 और 18 नवंबर 2024 को संत निरंकारी आध्यात्मिक स्थल, समालखा, हरियाणा में होने वाले 77 वें वार्षिक निरंकारी संत समागम में पहुँचकर मानवता के महाकुम्भ का एक बार फिर से नज़ारा सजाने जा रहे हैं। देश-विदेश से आने वाले ये भक्त जहा सतगुरु माता सुदीक्षा जी महाराज और सत्कारयोग निरंकारी राजपिता रमित जी के पावन दर्शन करके स्वयं को कृतार्थ अनुभव करेंगे। वहीं मिलजुलकर संत-समागम की शिक्षाओं से अपने मन को उज्जवल बनाने का प्रयास भी करेंगे।
इस संत समागम की भूमि को समागम के लिए तैयार करने की सेवा का शुभारम्भ इस बार 6 अक्टूबर को हर वर्ष की भांति सतगुरु माता सुदीक्षा जी महाराज और निरंकारी राजपिता जी के कर-कमलों द्वारा किया गया।
इस अवसर पर मिशन की कार्यकारिणी के सभी सदस्य, केंद्रीय सेवादल के अधिकारी और वाराणसी जोन के जोनल इंचार्ज एवं क्षेत्रीय संचालक के साथ सैकड़ो सेवादार तथा सत्संग के अन्य हज़ारो अनुयायी मौजूद रहे।
उल्लेखनीय है कि 600 एकड़़ में फैले इस विशाल समागम स्थल पर लाखों संतों के रहने, खाने-पीने, स्वास्थ्य और आने-जाने के साथ-साथ अन्य कई प्रकार की व्यवस्थाएं की जाती है, जिसके लिए पूरा महीना अनेक स्थानों से आकर भक्त निष्काम भाव से सेवारत रहते हैं।
इस पावन संत समागम में हर वर्ग के संत एवं सेवादार महात्मा अपने प्रियजनों संग सम्मिलित होकर एकत्व के इस दिव्य रूप का आनंद प्राप्त करेंगे। इस वर्ष के समागम का विषय है -विस्तार, असीम की ओर।
समागम सेवा के शुभ अवसर पर विशाल सत्संग को संबोधित करते हुए सतगुरु माता जी ने कहा कि सेवा करते समय सेवा को भेदभाव की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए अपितु सदैव निष्काम भाव से ही की जानी चाहिए। सेवा तभी वरदान साबित होती है जब उसमें कोई किंतु, परंतु नहीं होता, उसकी कोई समय सीमा नहीं होनी चाहिए कि समागम के दौरान तथा समागम के समाप्त होने तक ही सेवा करनी है, बल्कि अगले समागम तक भी सेवा का यही जज्बा बरकरार रहना चाहिए। यह तो निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। सेवा सदैव सेवा भाव से युक्त होकर ही करनी चाहिए फिर चाहे हम शारीरिक रूप से अक्षम हो या असमर्थ हो सेवा परवान होती है क्योंकि वह सेवा भावना से युक्त होती है।